Thursday, 20 September 2012

जब तुम्हे चाहा


जब तुम्हे चाहा तुम मिले ही नहीं |
अब मिले भी तो हम रहे ही  नहीं ||

तीन  पल   की    हयात   पाई  थी |
क्या करूँ तुम तो बस रुके ही नहीं ||

उन  गुनाहों   का   ख़ाब  क्या  देखें |
हमने जीवन में जो किये  ही  नहीं ||

हारना  क्या  था जीतना क्या  था |
फ़ैसले  प्यार   में   हुए   ही  नहीं ||

आग  क्या  है  न  मैंने  जाना  है |
हाथ   तेरे  कभी   छुए   ही  नहीं ||

पर्चियां  फाड़ता  रहा   लिख  कर |
ख़त के जुमले कभी बने ही नहीं ||

तुम थे बगिया में फूल खिलते थे |
तुम गए फूल भी खिले  ही  नहीं ||

साथ चलना था  मंज़िलों पे हमें |
ये  अकेले   क़दम  बढे  ही नहीं ||

तेरे  बारे  में  जब  भी  सोचा  है |
जाम‘सैनी’ ने तब पिए ही नहीं ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   


Tuesday, 18 September 2012

ज़ह्र कर डाला


सारे   पानी   को   ज़ह्र   कर   डाला |
और    बदहाल    शह्र   कर    डाला ||

वक़्त भी क्या-क्या गुल खिलाता है |
एक    क़तरे   को   बह्र   कर  डाला ||

तैरने     का    गुमान   था   इतना |
ख़ुद   को   ही  ज़ेरे -लह्र कर डाला ||

जाने उस  शख़्स में था क्या जादू  |
उसने   मुठ्ठी   में  दह्र  कर डाला ||

ख़ाब  में  छू  लिया  किसी ने उसे |
उसने बस्ती  पे  क़ह्र  कर   डाला ||

जिसने बांटा  मिठास  दुन्या  को |
पेश  उसको  ही  ज़ह्र  कर  डाला ||

‘सैनी ’की क्यूँ तमाम ग़ज़लों को |
आज  मसला -ए -बह्र कर  डाला ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 10 September 2012

इश्क़ का जल्वा


लुभाओ  मत  मुझे  यूँ   फ़ासले   से   ही   निगाहों  से |
कराओ मुझको भी वाक़िफ़ क़रीब आ कर अदाओं से ||

गुनाहों   से   बचा   कर  रक्खी मैंने  ज़िन्दगी  अपनी |
तुम्हें  छू  कर  लिपटना   चाहता  हूँ  अब  गुनाहों  से ||

छुपा  कर  ख़ुद  को  ले जाते हो मुझसे होशियारी से |
मगर  ख़ुशबू  बचा  पाते  नहीं  हो  तुम  हवाओं   से ||

जफ़ाएं  हुस्न  का  होती  हैं  गहना  बात  सच्ची  है |
उसे  लेना  या  देना  कुछ  नहीं   होता  वफ़ाओं  से ||

समझती हो अगर तुम राजरानी हुस्न की ख़ुद को |
तो  हम  भी  इश्क  के  कमतर  नहीं हैं बादशाहों  ||

जवानी  में  कुलाँचे   भर  रहा जब इश्क़  होता है |
हमेशा   ख़ार   खाता   है  बुजुर्गों  की  सलाहों  से ||

कभी देखा नहीं ‘सैनी'  ने  कोई इश्क़ का  जल्वा |
नहीं फ़ुर्सत कभी मिलती है उसको पारसाओं से ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी     

Friday, 7 September 2012

हुस्न का नशा


क्या उठा उनके दिल में फ़ुतूर  |
मुझ   से   रहने   लगे  दूर -दूर ||

आदमी   मैं    बुरा   ही   सहीअ |
काम  आऊँगा इक दिन ज़ुरूर  ||

बैठ बज़्म -ए -अदब में तू रोज़ |
आ ही जाएगा इक दिन शऊर ||

सच्ची सूरत जो कर दी  बयाँ |
आइने  को   किया   चूर -चूर ||

मुझ से शायद  कोई  काम  है |
आज  घर   मेरे   आये  हुजूर ||

 दौलत -ए -हुस्न का है  नशा |
आ  गया  थोड़ा उन में  ग़ुरूर ||

आप  ‘सैनी  ’की  ग़ज़लें पढ़ें |
कईं  दिनों  तक रहेगा सुरूर ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 3 September 2012

कभी सोचा नहीं था ये


मुझे  वो  भूल  जाएगा  कभी  सोचा  नहीं    था  ये |
ख़यालों   में   सताएगा  कभी  सोचा   नहीं  था  ये || 

मेरी  रातों  की  नींदे  और  ये  सुख  -चैन  सारा  ही |
वो   लेकर  साथ  जाएगा कभी  सोचा  नहीं  था  ये || 

हमारे  मुल्क  में  इस  बार  ये  बरसात  का मौसम |
तबाही   लेके   आयेगा  कभी   सोचा   नहीं  था   ये || 

जिसे हमने कभी छोड़ा था बिल्कुल अधमरा करके |
वो  दुश्मन  सर  उठाएगा कभी  सोचा  नहीं  था  ये || 

समझ कर अपना मैंने जो कही दो -चार  बातों का |
बतंगड़  वो  बनाएगा  कभी   सोचा    नहीं   था  ये || 

पिलाया दूध जिसको अपने बच्चों की तरह हमने |
हमें  वो  काट  खायेगा  कभी   सोचा  नहीं  था  ये || 

हमेशा   याद  आते  हैं वो बचपन के सुनहरे दिन |
सभी  कुछ  छूट  जाएगा  कभी सोचा नहीं था ये || 

लगी  है   नौकरी  बेटे  ने  तबसे   आँख  फेरी  है |
हमें  ये  दिन  दिखाएगा  कभी  सोचा नहीं था ये || 

कभी  इक  राज़ खोला था जो मैंने सामने उसके |
वो ‘सैनी ' को बताएगा  कभी  सोचा  नहीं था ये || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Tuesday, 28 August 2012

साफ़ नीयत


साफ़   सुथरी   है   नीयत    अगर |
हमसे   मिलिए  उठा  कर  नज़र ||

रोज़    सपनो    में  आता    है   तू |
आ    ज़रा    सामने     बात   कर ||

पहले    आने    का   वादा     करो |
तब   ही   सो   पाऊंगा   रात  भर ||

तेरी    ज़ुल्फ़ों    में   मैं      क़ैद  हूँ |
जाऊंगा    भी   कहाँ   भाग    कर ||

प्यार   माना    कि   तुझसे   हुआ |
एक    दुश्मन    बढ़ा    है    मगर ||

आप   पर   क्या   निछावर   करूँ |
दिल भी नकली है नकली जिगर ||

बदनसीबी     न    टाले        टले |     
दौडियेगा      इधर     से     उधर ||

ज़ुर्म  दुनिया  में  कर   चाहे  तू |
दोस्ती  में  न    पर  घात   कर ||

लड़ते -लड़ते   वो   थकते  नहीं |
प्यार  करते   हैं पर  मुख़्तसर ||

मुझको    ले   डूबेगी   सादगी |
मुझको   एसी  नहीं थी ख़बर ||

ग़म के आँसूं पिए  किस तरह |
सीख  ‘सैनी ’ से  तू  भी  हुनर ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी   
       

Thursday, 23 August 2012

आग का दरिया


दरिया  हूँ  मैं  इक  आग  का  जो  कि मुद्दतों से बुझा नहीं |
जो समझ सके मेरे दर्द को कोई आज तक तो मिला नहीं ||

वो  गुनाह  करके  बचे  रहे मुझे बिन किये ही सज़ा मिली |
वो  अजीब  सा  इजलास  था  जहाँ  मुद्दई  को  सुना  नहीं ||  

किया एक तरफ़ा ही फ़ैसला मुझे  छोड़  कर  वो  चले  गए |
क्यूँ  ख़फ़ा हुए क्या ख़ता हुई मुझे आज तक भी पता नहीं ||

ग़म-ए-आशिक़ी ने मिटा दिया जो वजूद कुछ था बचा हुआ |
मैं वो सूखता हुआ पेड़  हूँ   किसी  ने  भी  पानी  दिया  नहीं || 

ये चराग़  कैसे जलाऊं मैं नहीं  जानता मैं  ये इल्म-ओ-फ़न |
मैं   तो  तीरगी  में  पला बड़ा  मुझे   रोशनी  का   पता नहीं ||

वो मुझे लिखें मैं उन्हें लिखूं कभी ख़त लिखा था ये सोच कर |  
मेरी  उम्र  सारी  निकल  गई  वो  जवाब  उसने  दिया  नहीं || 

जो मिला उसी में  मैं  ख़ुश  रहा  मैं  ख़ुदा  का  शुक्रगुज़ार हूँ |
मेरे काम  सब ही निबट रहे कोई  काम  भी  तो  रुका  नहीं ||

मुझे  डस   रहीं   वो   आज   भी  मेरी  गुर्बतें  एक  सांप  सी |
मैं अना पे अपनी अड़ा रहा  कभी  उनके  आगे  झुका  नहीं ||

मेरी धडकनों पे वो  छा  गई  किसी  ख़ूबरू   रूह  की   तरह |
नहीं नाम का नहीं शहर का मुझे   आज  ‘सैनी ’ पता  नहीं ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी    
      

Tuesday, 14 August 2012

ख़ुदा के फ़ैसले


जो   मिला   ज़िंदगी   में   उसे   लीजिये   फ़ैसले   उस ख़ुदा    के  बदलते   नहीं |
लाख   कोशिश   करो   तोड़ने   की   इन्हें   ये   सितारे   ज़मीं  पे   बरसते  नहीं ||

आप     रोते     रहो     गिडगिडाते     रहो    रोज़    ढेरो    चढ़ावा    चढाते    रहो |
ये हैं पत्थर के बुत इनकी फ़ितरत यही कितनी करलो परस्तिश पिघंलते नहीं ||

जब भी  की  बात  उनसे  तो  ये  ही  सूना  आज  फ़ुर्सत नहीं फिर कभी  आइये |
और   हम  पे  ये  इल्ज़ाम   लगता   रहा  हम ही  उनसे कभी बात   करते  नहीं ||

तेरे   आने   से   इक   रोशनी    सी   हुई   दूर   घर   की   मेरे   तीरगी  हो  गयी |
वर्ना   बैठे   थे   हम   तो  तसल्ली  किये  आँधियों  में  कभी   दीप जलते  नहीं ||

साथ रहता है साया बशर के सदा वक़्त  कैसा  भी  मुश्किल  कहीं  पर  भी   हो |
दो  क़दम  चल के  कह  देते  हैं  अलविदा  दूर  तक सब सदा साथ  चलते नहीं ||

आज तक हमने जो भी कहा ए सनम सब तुम्हारे   लिए   बस   तुम्हारे  लिए |
जिक्र  तेरे  फ़साने  का  जिनमें  न  हो  हम  कभी  इसे अलफ़ाज़ लिखते नहीं ||

ज़हर पी लेगा जितना पिलाओगे तुम उसके  माथे  पे  होगी  न   कोई  शिकन |
बोल  ‘सैनी ’ को  मीठे  मगर  बोलना  उसको  कडुए  कभी  बोल   पचते  नहीं ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Sunday, 5 August 2012

चांदनी का सफ़र


आप  बन कर चले जब  मेरे हमसफ़र |
लो  शुरू  हो  गया   चांदनी  का  सफ़र ||

मेरी  आँखों  में  हैं  इक अनोखी चमक |
साथ  है  जो  मेरे  आप  सा   हमसफ़र ||

ये   ज़रूरी   नहीं   आज   ही   तू   मिले |
राह   देखूंगा   मैं   तो    तेरी   उम्र   भर ||

वक़्त थोड़ा सा मेरे भी लिए तो  निकाल |
वक़्त पर काम कर वक़्त पर प्यार कर ||

पार    करले    ये   काँटों   भरा    रास्ता |
बाद   इसके   है  फूलों   भरी   वो  डगर ||

इश्क़   में  मुब्तिला  जब  से  तेरे  हुआ |
दुन्यादारी  में बिल्कुल हुआ मैं  सिफ़र ||

तुझसे  रुसवा हुआ  तो   ये   हालत  हुई |
इस  तरफ़ है  कुआ  तो   है  खाई  उधर ||

क्यूँ  ग़रूर   इतना  है  ये  बता  तो  सही |
रिश्ते    नाते   सभी  रख दिये  ताक़ पर ||

है   बिना  प्यार   के  बोझ   ये    ज़िंदगी  |
जिसको ढोता फिरे ‘सैनी’शाम-ओ-सहर ||

डा ० सुरेन्द्र  सैनी      



Thursday, 2 August 2012

मक़ाम आ गया


दोस्ती  में  ये  कैसा  मक़ाम  आ  गया |
दुश्मनों  में  हमारा भी  नाम आ  गया ||

एसा सर पर चढ़ा है  जनून -ए  -जिहाद |
आज सड़कों पे सारा  अवाम  आ  गया ||

वो    हुए    थे    ख़फ़ा   मुदत्तें   हो   गयीं |
ईद पर फिर भी उनका सलाम आ गया ||

उनको  देखा  तो  नज़रें ये  कहने  लगी |
हुस्न का आज सारा निजाम  आ  गया ||

थक    गयी    दौडती   भागती   ज़िंदगी |
ज़िंदगी के सफ़र का  क़याम  आ  गया ||

वो अयादत कोआये  न  आये  तो  क्या |
पास   मेरे   महल्ला  तमाम   आ  गया ||

बच   के   रहना   हसीनो  ज़रा  शहर  में |
एक पागल सा आशिक़ अनाम आ गया ||

तेरी  महफ़िल में तलछट ही मिलती रही |
क्या  करिश्मा  हुआ आज जाम  आ गया ||

जानता    था    यहाँ    लोग    हैं     बेशऊर | 
फिर  भी  ‘सैनी’ तू  पढने कलाम आ गया ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Sunday, 8 April 2012

दिल-ए -बीमार


दिल-ए -बीमार की हालत कभी  तो देख लो आ कर |
पुकारा है बड़ी शिद्दत  से  उसने  आज   पछता  कर ||

 तुम्हारी अहमियत कितनी हमारा दिल समझता है |
ज़रा फ़ुर्सत में इसको सोचियेगा  आज घर  जा  कर ||

हमारी   हद   हमें   मालूम   है  फिर  डींग  क्यूँ हांके |
 फ़लक़ से तोड़ कर  देंगे  न  तारे  आपको  ला   कर ||

न  गोली से,न खंजर से,न  डर लगता  मिसाइल   से |
हमें डर उससे  है  जो  लूटता  है  प्या र दिखला  कर ||

कमी  उसने  नहीं    छोडी   मुझे   बरबाद    करने  में |
कभी लालच से फुसलाकर कभी बातों से बहका  कर || 

अगर    खैरात     वो    देंगे  तो   होगी शर्त  ये  पहली |
बड़ा  सा  बोर्ड  टंगवा  दो उन्ही का नाम लिखवा  कर ||

ज़रा  ‘सैनी’ से  जाकर   पूछिए   क्यूँ   है  परेशाँ   वो |
हुआ है ज़ाफ़रानी सा बदन क्योंकर ये कुम्हला  कर ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Tuesday, 3 April 2012

नहीं चाहत रही


नहीं  चाहत  रही   कोई   कभी   इनआम   पाने  की |
मेरी ख़्वाहिश रही दुन्या को बस खुशियाँ लुटाने की ||

लहू   जलता   रहा  मेरा   क़लम  चलता  रहा  मेरा |
नहीं  परवाह   की   मैंने   कभी  खाने - कमाने  की ||

तुम्हारे  प्यार  के  आगे नहीं   टिकती  कोई  दौलत |
हज़ारों   बार    झेली   ज़िल्लतें   मैंने   ज़माने  की ||

नज़र  आये  ज़बीं पर  देख लीजे  प्यार  कितना  है |
ज़रूरत  ही  नहीं  पड़ती   मुझे   इसको  बताने  की ||

मुझे  जो  प्यार  करते   हैं   सलामत   वो    रहें  सारे |
उन्ही से मिलती है ताक़त मुझे लिखने -लिखाने की ||

कहें  अच्छा ,पढ़े  अच्छा  ये सबका  फ़र्ज़  बनता  है |
सभी की ज़िम्मेदारी है ये  नस्लों  को   सिखाने  की ||

बड़ी   ही  तंगदस्ती  में  रहा  है   आज   तक  ‘सैनी’|
जगह क्या ईंट  इक हासिल नहीं  है आशियाने की ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 2 April 2012

एक तरफ़


दौलत  सारी  एक  तरफ़ |
पर   ख़ुद्दारी  एक  तरफ़ ||

बातें  प्यारी  एक  तरफ़ |
ज़िम्मेदारी  एक  तरफ़ ||

धंधे  की  है  बात  अलग |
आपसदारी   एक  तरफ़ ||

सीने  पर  कर वार मगर |
रख मक्कारी एक तरफ़ ||

दीवाली   की   रात  कहीं |
है    बेज़ारी   एक  तरफ़ ||

कर   देता   है  इश्क़ सदा |
सब  बीमारी  एक  तरफ़ ||

‘सैनी’की सब  आज पडी |
हसरत न्यारी एक तरफ़ ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

हिम्मत


नज़र लगती है जब आने किसी बीमार की हिम्मत |
तो बढ़ जाती  है उसके पूरे ही परिवार  की  हिम्मत ||

दिखाने  को  दिखाले  तू   हमें  हथियार  की  हिम्मत |
कभी  तू देख  तो  आकर  हमारे  प्यार   की  हिम्मत ||

सुना  है  ताब  उसके  हुस्न   की सूरज से बढ़ कर  है |
मेरा  कमज़ोर   दिल  कैसे करे   दीदार  की  हिम्मत ||

तुम्हारे  इक  इशारे   पर   हमारी   जान   हाज़िर   है |
भला  हम  में  कहाँ  से  आयेगी इन्कार की हिम्मत ||

निकलते  हैं  वो  जब  घर   से  पडौसी  तंज़ करता  है |
दिन -ओ -दिन बढ़ रही है देखिये बदकार की हिम्मत ||

सही लोगों को  चुन  कर  भेजिए  इक  बार  संसद  में |
ग़लत करने की कुछ होगी नहीं सरकार की  हिम्मत ||

अगर  हम  एक  हो  जाए  रहे  मिलकर  सलीक़े  से |
फ़ना  कर  दे  हमें  होगी   नहीं  ग़द्दार   की  हिम्मत ||

भरोसा   है  नहीं   मुझको   ज़माने   के   वसीले  का |
हमेशा  काम  आती  है   मेरे  किरदार  की  हिम्मत ||

संभलना तुम ज़रा ‘सैनी’न पड़ जाओ मुसीबत  में |
बुढापे  में  दिखाने   चल  पड़े  बेकार  की  हिम्मत ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 



Saturday, 31 March 2012

पत्थर जब


पत्थर   जब   फलदार  शजर  पर  मारेगा |
फल   ही  देगा   और   नहीं  तो  क्या  देगा ||

नामुमकिन को मुमकिन करना है आसान |
कुछ करने को  दिल  में  अगर  तू  ठानेगा ||

सब को है  मालूम  करोगे  जब  भी  इश्क़ |
सारा   ही   सुख –चैन   तुम्हारा    लेलेगा ||

कैसे -कैसे   आप   कमा   कर    लाते  हैं |
कल  को  बच्चा  बात  सभी   ये  पूछेगा ||

ढीला – ढाला जंग  में होगा  जो शामिल |
हर  कोई  उस  पे  ही   निशाना  साधेगा ||

कच्चा फल है सब्र करो पक जाने  तक |
इक दिन इसका स्वाद ज़माना मानेगा ||

‘सैनी’ख़ाली हाथ चला  है  मंज़िल  पर |
उससे अब क्या  कोई लुटेरा  छीनेगा  ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी    

Wednesday, 28 March 2012

आँखों से


मसल: दिल का  एक पुराना जब आ  उलझा  आँखों  से |
क़तरा–क़तरा एक समुंदर बह - बह निकला आँखों  से ||

लगती  थी वो  हमें हसीना बिलकुल अबला आँखों  से |
जाने क्या  उसको  सूझा वो कर गई हमला आँखों  से ||

ख़त  वो  मेरे  पढ़  लेता  है बिलकुल नीम  अँधेरे  में |
पर  मेरे  आगे  हो  जाता  इकदम  दुबला  आँखों  से ||

पैमाना  लेकर    ख़ाली   हम  बैठे  थे  भिखमंगे  से |
जब  औरों  को ख़ूब पिलाई उसने मदिरा आँखों से ||

बरसों  से  जो  देख  रहा था ‘सैनी’क़ाबिल होने का |
आँधी एसी वक़्त की आई सपना बिखरा आँखों से ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी  

Tuesday, 27 March 2012

शरमा गयी ग़ज़ल


कल शाम मुझसे तंज़ में कहने लगी ग़ज़ल |
पटरी   पे   धीरे -धीरे  मेरी  आ  रही  ग़ज़ल ||

हमने तो उनकी शान में इक क़ाफ़िया कहा |
पल्लू में छुप रदीफ़ के  शरमा गयी  ग़ज़ल ||

ग़ालिब-ऑ-मीर को गए हैं भूल आज लोग |
अंदाज़ में नए -नए अब  चल  पडी  ग़ज़ल ||

ये आशिक़ी का तेरी नतीजा है  जान-ए-जाँ |
उम्मीद वरना क्या थी  कहेंगे  कभी ग़ज़ल ||

जिसने  कहा  जो भी कहा सहती  चली गयी |
जिस भी मिजाज़ में कहा उसमें ढली ग़ज़ल ||

दिन  हो  या  रात, ख़ाब  हो  या  जागते  हुए |
तेरे  ख़याल  में  ही  हमें  गुम  मिली ग़ज़ल ||

चाहत में उनकी  रोज़ ही  इतना  कहा  गया |
उसने न अब तलक मेरी  कोई  पढी  ग़ज़ल ||

सर चढ़ के बोलती है ग़ज़ल इस तरह जनाब |
कहने लगे हैं आज तो लगभग  सभी  ग़ज़ल ||

मेरा  मिजाज़   देख   के   पूछे   हैं   यार   सब |
'सैनी' बताओ सच में क्या तुमने कही ग़ज़ल ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 26 March 2012

कोशिश


मेरे  इक़रार  की  कोशिश  तेरे  इन्कार  की  कोशिश | 
अभी तक तो रही दोनों  की  ही  बेकार  की  कोशिश ||

करूँ जब -जब भी मैं उनसे कोई इज़हार की कोशिश |
अदा  देखो  ये  ज़ालिम की करे तक़रार की कोशिश ||

सुना  है रंग लाती  है  हिना  पत्थर  पे   घिसने   से |
कभी तो काम आयेगी  दिले  बीमार  की   कोशिश ||

ज़माने  हो   गए    सुनते   हुए   ये  बात  लोगों  से |
ग़रीबी दूर  करने  की  रही  सरकार  की   कोशिश ||

मनाता   हूँ   उन्हें   जब   भी  बड़ा  मायूस  होता  हूँ |
वही नाकाम रहती  है  मेरी  हर  बार  की  कोशिश ||

हमारे घर में घुस आये  चलाये  अपनी   मन  मानी |
बराबर हो रही है आज  तक  अग़्यार  की  कोशिश ||

करे   कोई   हिमाकत   हम  नज़र  अंदाज़  करते  हैं |
हमेशा  से  रही  अपनी  सुखी - संसार  की   कोशिश ||

अगर हो मैच में फिक्सिंग  कोई  तो  बात  दीगर   है |
वगरना कौन करता है यूँ  अपनी  हार  की   कोशिश ||

सताने   का   नहीं   वो   छोड़ते   हैं   एक   भी  मौक़ा |
हमारी फिर भी रहती  है  सदा  इसरार  की  कोशिश ||

अचानक   आ   ही   जाती   है  कहीं  से  कोई  दुश्वारी |
नहीं  परवान  चढ़  पाती  विसाले  यार  की  कोशिश ||

किया   क़ब्ज़ा   हमारी   सल्तनत   पर  देखिये  कैसे |
फ़िरंगी की फ़क़त थी चाय  के  व्योपार  की  कोशिश || 

हमें   भी   रूठना   आता   है   हम   भी   रूठ    जायेंगे |
न करना फिर से मिलने के लिए इन्कार की कोशिश ||

बता तूने ही कब समझी है  क़ीमत  उसके  जज़्बे  की |
कभी तो की थी ‘सैनी' ने भी तुझसे प्यार की कोशिश ||

डा० सुरेन्द्र सैनी 
      

Thursday, 22 March 2012

सितमगर


सितमगर  आज  तक  देखा नहीं एसा ज़माने में |
गुज़ारी  ज़िंदगी   सारी   जिसे  हमने  मनाने  में || 

अदालत में मुक़दमे की तरह होती है  उल्फ़त  भी |
गुज़र जाते हैं कितने  साल  इक  इंसाफ़  पाने  में ||

कोई  सुनना अगर चाहे  तो  उसको  ही  सुनाते  हैं |
वगरना हमको दिलचस्पी नहीं कुछ भी सुनाने में ||

अगरचे आज तक अपनी कभी क़ीमत नहीं  आंकी |
मगर इतना तो तय है हम न बिकते चार  आने  में ||

क़लम को छोड़ कर अपने उबर सकते थे ग़ुरबत से |
अगर  हम  ध्यान   दे  लेते ज़रा दौलत  कमाने  में ||

ज़रा   दो  बोल   मीठे   बोल  कर  तो देखिये सबसे |
नहीं   क़ीमत  कोई  लगती किसी से प्यार पाने में ||

कभी   किरदार  को  हमने  नहीं समझा बुजुर्गों के |
लगे  रहते  हैं हम  तो  सिर्फ़  उनके बुत बनाने  में ||

तरफ़दारी  हमेशा  अम्न  की  हम  करते  आये  हैं |
हमें  तो  बस  मज़ा आता है रिश्तों को  बचाने  में ||

सताया किस  तरह  हमको  हमारे अपने लोगों ने |
बड़ी  तक़लीफ़  होती  है   ये  ‘सैनी’  को बताने में ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
  

Wednesday, 21 March 2012

किरदार वाले लोग


किरदार  वाले  लोग  अब  रह  गए  थोड़े |
दस्तार  वाले  लोग  अब  रह  गए  थोड़े ||

अफ़सोस  है  इस  देश  को  जो  चलाएंगे |
सरकार  वाले  लोग  अब  रह  गए  थोड़े ||

अपना समझ के आप से दिल मिलाये जो |
अधिकार वाले  लोग   अब  रह  गए  थोड़े || 

ख़बरों में जो आईने  जैसी  चमक  रक्खे |
अख़बार वाले  लोग   अब  रह  गए थोड़े || 
  
खायें क़सम  झूठी  वफ़ायें   निभाने  की |
इक़रार वाले  लोग  अब  रह   गए  थोड़े || 
   
दीन-ओ-इमां से दूर अब भागते हैं लोग |
अज़कार वाले लोग  अब रह  गए  थोड़े ||    

इल्मे -उरूज़ अब शायरी में नहीं ‘सैनी’|
अशआर वाले लोग अब रह गए  थोड़े ||    

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
       

Tuesday, 20 March 2012

क्या करूँ |


बेवफ़ा  के  पास   जा  कर  क्या  करूँ |
और अब दिल को दुखा कर क्या करूँ ||

आँख  पर  पट्टी  जो  बांधे  चल  रहा |
रास्ता  उसको  बता   कर  क्या  करूँ ||

लोग अपने –अपने मन की  कर  रहे |
ग़लतियां उनकी गिना कर क्या करूँ || 

भूल   बैठा   है   जो  मेरा  नाम  तक |
बज़्म में उसको बुला कर क्या  करूँ || 

भूख    से    बेहाल   बच्चा    रो   रहा |
अब उसे लोरी  सुना  कर  क्या  करूँ || 

है   नहीं   फ़ुर्सत  उन्हें  तो  आजकल |
महफ़िलें फिर मैं सजा कर क्या करूँ || 

रूह तो दिलबर  से  मिलने  जा  चुकी |
फूल   मुर्दे   पर  चढ़ा  कर  क्या  करूँ || 

बेसुरों   के   बीच   में  जब  फंस   गया |
मैं ही सुर में  गुनगुना  कर  क्या  करूँ || 

कुछ तवज़्जोह  आप  जब   देते   नहीं |
बात  को  मैं  भी  बढ़ा  कर  क्या  करूँ || 

ज़हर मिल कर  बिक रहा हर चीज़ में |
अब अलग से ज़हर खा कर क्या करूँ ||  

देख    कर   नादान   की    नादानियां |
बेवजह मैं  तिलमिला कर  क्या करूँ ||  

ज़िंदगी  भर   तो  नहीं  मै   को चखा |
आज ही  मुंह से लगा कर क्या  करूँ ||  

भैंस     नाचेगी    नहीं   ‘सैनी’   तेरी |
बीन फिर यूँ ही बजा कर क्या  करूँ ||  

डा० सुरेन्द्र  सैनी