कल शाम मुझसे तंज़ में कहने लगी ग़ज़ल |
पटरी पे धीरे -धीरे मेरी आ रही ग़ज़ल ||
हमने तो उनकी शान में इक क़ाफ़िया कहा |
पल्लू में छुप रदीफ़ के शरमा गयी ग़ज़ल ||
ग़ालिब-ऑ-मीर को गए हैं भूल आज लोग |
अंदाज़ में नए -नए अब चल पडी ग़ज़ल ||
ये आशिक़ी का तेरी नतीजा है जान-ए-जाँ |
उम्मीद वरना क्या थी कहेंगे कभी ग़ज़ल ||
जिसने कहा जो भी कहा सहती चली गयी |
जिस भी मिजाज़ में कहा उसमें ढली ग़ज़ल ||
दिन हो या रात, ख़ाब हो या जागते हुए |
तेरे ख़याल में ही हमें गुम मिली ग़ज़ल ||
चाहत में उनकी रोज़ ही इतना कहा गया |
उसने न अब तलक मेरी कोई पढी ग़ज़ल ||
सर चढ़ के बोलती है ग़ज़ल इस तरह जनाब |
कहने लगे हैं आज तो लगभग सभी ग़ज़ल ||
मेरा मिजाज़ देख के पूछे हैं यार सब |
'सैनी' बताओ सच में क्या तुमने कही ग़ज़ल ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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