Tuesday, 27 March 2012

शरमा गयी ग़ज़ल


कल शाम मुझसे तंज़ में कहने लगी ग़ज़ल |
पटरी   पे   धीरे -धीरे  मेरी  आ  रही  ग़ज़ल ||

हमने तो उनकी शान में इक क़ाफ़िया कहा |
पल्लू में छुप रदीफ़ के  शरमा गयी  ग़ज़ल ||

ग़ालिब-ऑ-मीर को गए हैं भूल आज लोग |
अंदाज़ में नए -नए अब  चल  पडी  ग़ज़ल ||

ये आशिक़ी का तेरी नतीजा है  जान-ए-जाँ |
उम्मीद वरना क्या थी  कहेंगे  कभी ग़ज़ल ||

जिसने  कहा  जो भी कहा सहती  चली गयी |
जिस भी मिजाज़ में कहा उसमें ढली ग़ज़ल ||

दिन  हो  या  रात, ख़ाब  हो  या  जागते  हुए |
तेरे  ख़याल  में  ही  हमें  गुम  मिली ग़ज़ल ||

चाहत में उनकी  रोज़ ही  इतना  कहा  गया |
उसने न अब तलक मेरी  कोई  पढी  ग़ज़ल ||

सर चढ़ के बोलती है ग़ज़ल इस तरह जनाब |
कहने लगे हैं आज तो लगभग  सभी  ग़ज़ल ||

मेरा  मिजाज़   देख   के   पूछे   हैं   यार   सब |
'सैनी' बताओ सच में क्या तुमने कही ग़ज़ल ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

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