सितमगर आज तक देखा नहीं एसा ज़माने में |
गुज़ारी ज़िंदगी सारी जिसे हमने मनाने में ||
अदालत में मुक़दमे की तरह होती है उल्फ़त भी |
गुज़र जाते हैं कितने साल इक इंसाफ़ पाने में ||
कोई सुनना अगर चाहे तो उसको ही सुनाते हैं |
वगरना हमको दिलचस्पी नहीं कुछ भी सुनाने में ||
अगरचे आज तक अपनी कभी क़ीमत नहीं आंकी |
मगर इतना तो तय है हम न बिकते चार आने में ||
क़लम को छोड़ कर अपने उबर सकते थे ग़ुरबत से |
अगर हम ध्यान दे लेते ज़रा दौलत कमाने में ||
ज़रा दो बोल मीठे बोल कर तो देखिये सबसे |
नहीं क़ीमत कोई लगती किसी से प्यार पाने में ||
कभी किरदार को हमने नहीं समझा बुजुर्गों के |
लगे रहते हैं हम तो सिर्फ़ उनके बुत बनाने में ||
तरफ़दारी हमेशा अम्न की हम करते आये हैं |
हमें तो बस मज़ा आता है रिश्तों को बचाने में ||
सताया किस तरह हमको हमारे अपने लोगों ने |
बड़ी तक़लीफ़ होती है ये ‘सैनी’ को बताने में ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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