दरिया हूँ मैं इक आग का जो कि मुद्दतों से बुझा नहीं |
जो समझ सके मेरे दर्द को कोई आज तक तो मिला नहीं ||
वो गुनाह करके बचे रहे मुझे बिन किये ही सज़ा मिली |
वो अजीब सा इजलास था जहाँ मुद्दई को सुना नहीं ||
किया एक तरफ़ा ही फ़ैसला मुझे छोड़ कर वो चले गए |
क्यूँ ख़फ़ा हुए क्या ख़ता हुई मुझे आज तक भी पता नहीं ||
ग़म-ए-आशिक़ी ने मिटा दिया जो वजूद कुछ था बचा हुआ |
मैं वो सूखता हुआ पेड़ हूँ किसी ने भी पानी दिया नहीं ||
ये चराग़ कैसे जलाऊं मैं नहीं जानता मैं ये इल्म-ओ-फ़न |
मैं तो तीरगी में पला बड़ा मुझे रोशनी का पता नहीं ||
वो मुझे लिखें मैं उन्हें लिखूं कभी ख़त लिखा था ये सोच कर |
मेरी उम्र सारी निकल गई वो जवाब उसने दिया नहीं ||
जो मिला उसी में मैं ख़ुश रहा मैं ख़ुदा का शुक्रगुज़ार हूँ |
मेरे काम सब ही निबट रहे कोई काम भी तो रुका नहीं ||
मुझे डस रहीं वो आज भी मेरी गुर्बतें एक सांप सी |
मैं अना पे अपनी अड़ा रहा कभी उनके आगे झुका नहीं ||
मेरी धडकनों पे वो छा गई किसी ख़ूबरू रूह की तरह |
नहीं नाम का नहीं शहर का मुझे आज ‘सैनी ’ पता नहीं ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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