सारे पानी को ज़ह्र कर डाला |
और बदहाल शह्र कर डाला ||
वक़्त भी क्या-क्या गुल खिलाता है |
एक क़तरे को बह्र कर डाला ||
तैरने का गुमान था इतना |
ख़ुद को ही ज़ेरे -लह्र कर डाला ||
जाने उस शख़्स में था क्या जादू |
उसने मुठ्ठी में दह्र कर डाला ||
ख़ाब में छू लिया किसी ने उसे |
उसने बस्ती पे क़ह्र कर डाला ||
जिसने बांटा मिठास दुन्या को |
पेश उसको ही ज़ह्र कर डाला ||
‘सैनी ’की क्यूँ तमाम ग़ज़लों को |
आज मसला -ए -बह्र कर डाला ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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