Tuesday, 18 September 2012

ज़ह्र कर डाला


सारे   पानी   को   ज़ह्र   कर   डाला |
और    बदहाल    शह्र   कर    डाला ||

वक़्त भी क्या-क्या गुल खिलाता है |
एक    क़तरे   को   बह्र   कर  डाला ||

तैरने     का    गुमान   था   इतना |
ख़ुद   को   ही  ज़ेरे -लह्र कर डाला ||

जाने उस  शख़्स में था क्या जादू  |
उसने   मुठ्ठी   में  दह्र  कर डाला ||

ख़ाब  में  छू  लिया  किसी ने उसे |
उसने बस्ती  पे  क़ह्र  कर   डाला ||

जिसने बांटा  मिठास  दुन्या  को |
पेश  उसको  ही  ज़ह्र  कर  डाला ||

‘सैनी ’की क्यूँ तमाम ग़ज़लों को |
आज  मसला -ए -बह्र कर  डाला ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

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