Monday, 10 September 2012

इश्क़ का जल्वा


लुभाओ  मत  मुझे  यूँ   फ़ासले   से   ही   निगाहों  से |
कराओ मुझको भी वाक़िफ़ क़रीब आ कर अदाओं से ||

गुनाहों   से   बचा   कर  रक्खी मैंने  ज़िन्दगी  अपनी |
तुम्हें  छू  कर  लिपटना   चाहता  हूँ  अब  गुनाहों  से ||

छुपा  कर  ख़ुद  को  ले जाते हो मुझसे होशियारी से |
मगर  ख़ुशबू  बचा  पाते  नहीं  हो  तुम  हवाओं   से ||

जफ़ाएं  हुस्न  का  होती  हैं  गहना  बात  सच्ची  है |
उसे  लेना  या  देना  कुछ  नहीं   होता  वफ़ाओं  से ||

समझती हो अगर तुम राजरानी हुस्न की ख़ुद को |
तो  हम  भी  इश्क  के  कमतर  नहीं हैं बादशाहों  ||

जवानी  में  कुलाँचे   भर  रहा जब इश्क़  होता है |
हमेशा   ख़ार   खाता   है  बुजुर्गों  की  सलाहों  से ||

कभी देखा नहीं ‘सैनी'  ने  कोई इश्क़ का  जल्वा |
नहीं फ़ुर्सत कभी मिलती है उसको पारसाओं से ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी     

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