Saturday, 31 March 2012

पत्थर जब


पत्थर   जब   फलदार  शजर  पर  मारेगा |
फल   ही  देगा   और   नहीं  तो  क्या  देगा ||

नामुमकिन को मुमकिन करना है आसान |
कुछ करने को  दिल  में  अगर  तू  ठानेगा ||

सब को है  मालूम  करोगे  जब  भी  इश्क़ |
सारा   ही   सुख –चैन   तुम्हारा    लेलेगा ||

कैसे -कैसे   आप   कमा   कर    लाते  हैं |
कल  को  बच्चा  बात  सभी   ये  पूछेगा ||

ढीला – ढाला जंग  में होगा  जो शामिल |
हर  कोई  उस  पे  ही   निशाना  साधेगा ||

कच्चा फल है सब्र करो पक जाने  तक |
इक दिन इसका स्वाद ज़माना मानेगा ||

‘सैनी’ख़ाली हाथ चला  है  मंज़िल  पर |
उससे अब क्या  कोई लुटेरा  छीनेगा  ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी    

Wednesday, 28 March 2012

आँखों से


मसल: दिल का  एक पुराना जब आ  उलझा  आँखों  से |
क़तरा–क़तरा एक समुंदर बह - बह निकला आँखों  से ||

लगती  थी वो  हमें हसीना बिलकुल अबला आँखों  से |
जाने क्या  उसको  सूझा वो कर गई हमला आँखों  से ||

ख़त  वो  मेरे  पढ़  लेता  है बिलकुल नीम  अँधेरे  में |
पर  मेरे  आगे  हो  जाता  इकदम  दुबला  आँखों  से ||

पैमाना  लेकर    ख़ाली   हम  बैठे  थे  भिखमंगे  से |
जब  औरों  को ख़ूब पिलाई उसने मदिरा आँखों से ||

बरसों  से  जो  देख  रहा था ‘सैनी’क़ाबिल होने का |
आँधी एसी वक़्त की आई सपना बिखरा आँखों से ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी  

Tuesday, 27 March 2012

शरमा गयी ग़ज़ल


कल शाम मुझसे तंज़ में कहने लगी ग़ज़ल |
पटरी   पे   धीरे -धीरे  मेरी  आ  रही  ग़ज़ल ||

हमने तो उनकी शान में इक क़ाफ़िया कहा |
पल्लू में छुप रदीफ़ के  शरमा गयी  ग़ज़ल ||

ग़ालिब-ऑ-मीर को गए हैं भूल आज लोग |
अंदाज़ में नए -नए अब  चल  पडी  ग़ज़ल ||

ये आशिक़ी का तेरी नतीजा है  जान-ए-जाँ |
उम्मीद वरना क्या थी  कहेंगे  कभी ग़ज़ल ||

जिसने  कहा  जो भी कहा सहती  चली गयी |
जिस भी मिजाज़ में कहा उसमें ढली ग़ज़ल ||

दिन  हो  या  रात, ख़ाब  हो  या  जागते  हुए |
तेरे  ख़याल  में  ही  हमें  गुम  मिली ग़ज़ल ||

चाहत में उनकी  रोज़ ही  इतना  कहा  गया |
उसने न अब तलक मेरी  कोई  पढी  ग़ज़ल ||

सर चढ़ के बोलती है ग़ज़ल इस तरह जनाब |
कहने लगे हैं आज तो लगभग  सभी  ग़ज़ल ||

मेरा  मिजाज़   देख   के   पूछे   हैं   यार   सब |
'सैनी' बताओ सच में क्या तुमने कही ग़ज़ल ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 26 March 2012

कोशिश


मेरे  इक़रार  की  कोशिश  तेरे  इन्कार  की  कोशिश | 
अभी तक तो रही दोनों  की  ही  बेकार  की  कोशिश ||

करूँ जब -जब भी मैं उनसे कोई इज़हार की कोशिश |
अदा  देखो  ये  ज़ालिम की करे तक़रार की कोशिश ||

सुना  है रंग लाती  है  हिना  पत्थर  पे   घिसने   से |
कभी तो काम आयेगी  दिले  बीमार  की   कोशिश ||

ज़माने  हो   गए    सुनते   हुए   ये  बात  लोगों  से |
ग़रीबी दूर  करने  की  रही  सरकार  की   कोशिश ||

मनाता   हूँ   उन्हें   जब   भी  बड़ा  मायूस  होता  हूँ |
वही नाकाम रहती  है  मेरी  हर  बार  की  कोशिश ||

हमारे घर में घुस आये  चलाये  अपनी   मन  मानी |
बराबर हो रही है आज  तक  अग़्यार  की  कोशिश ||

करे   कोई   हिमाकत   हम  नज़र  अंदाज़  करते  हैं |
हमेशा  से  रही  अपनी  सुखी - संसार  की   कोशिश ||

अगर हो मैच में फिक्सिंग  कोई  तो  बात  दीगर   है |
वगरना कौन करता है यूँ  अपनी  हार  की   कोशिश ||

सताने   का   नहीं   वो   छोड़ते   हैं   एक   भी  मौक़ा |
हमारी फिर भी रहती  है  सदा  इसरार  की  कोशिश ||

अचानक   आ   ही   जाती   है  कहीं  से  कोई  दुश्वारी |
नहीं  परवान  चढ़  पाती  विसाले  यार  की  कोशिश ||

किया   क़ब्ज़ा   हमारी   सल्तनत   पर  देखिये  कैसे |
फ़िरंगी की फ़क़त थी चाय  के  व्योपार  की  कोशिश || 

हमें   भी   रूठना   आता   है   हम   भी   रूठ    जायेंगे |
न करना फिर से मिलने के लिए इन्कार की कोशिश ||

बता तूने ही कब समझी है  क़ीमत  उसके  जज़्बे  की |
कभी तो की थी ‘सैनी' ने भी तुझसे प्यार की कोशिश ||

डा० सुरेन्द्र सैनी 
      

Thursday, 22 March 2012

सितमगर


सितमगर  आज  तक  देखा नहीं एसा ज़माने में |
गुज़ारी  ज़िंदगी   सारी   जिसे  हमने  मनाने  में || 

अदालत में मुक़दमे की तरह होती है  उल्फ़त  भी |
गुज़र जाते हैं कितने  साल  इक  इंसाफ़  पाने  में ||

कोई  सुनना अगर चाहे  तो  उसको  ही  सुनाते  हैं |
वगरना हमको दिलचस्पी नहीं कुछ भी सुनाने में ||

अगरचे आज तक अपनी कभी क़ीमत नहीं  आंकी |
मगर इतना तो तय है हम न बिकते चार  आने  में ||

क़लम को छोड़ कर अपने उबर सकते थे ग़ुरबत से |
अगर  हम  ध्यान   दे  लेते ज़रा दौलत  कमाने  में ||

ज़रा   दो  बोल   मीठे   बोल  कर  तो देखिये सबसे |
नहीं   क़ीमत  कोई  लगती किसी से प्यार पाने में ||

कभी   किरदार  को  हमने  नहीं समझा बुजुर्गों के |
लगे  रहते  हैं हम  तो  सिर्फ़  उनके बुत बनाने  में ||

तरफ़दारी  हमेशा  अम्न  की  हम  करते  आये  हैं |
हमें  तो  बस  मज़ा आता है रिश्तों को  बचाने  में ||

सताया किस  तरह  हमको  हमारे अपने लोगों ने |
बड़ी  तक़लीफ़  होती  है   ये  ‘सैनी’  को बताने में ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
  

Wednesday, 21 March 2012

किरदार वाले लोग


किरदार  वाले  लोग  अब  रह  गए  थोड़े |
दस्तार  वाले  लोग  अब  रह  गए  थोड़े ||

अफ़सोस  है  इस  देश  को  जो  चलाएंगे |
सरकार  वाले  लोग  अब  रह  गए  थोड़े ||

अपना समझ के आप से दिल मिलाये जो |
अधिकार वाले  लोग   अब  रह  गए  थोड़े || 

ख़बरों में जो आईने  जैसी  चमक  रक्खे |
अख़बार वाले  लोग   अब  रह  गए थोड़े || 
  
खायें क़सम  झूठी  वफ़ायें   निभाने  की |
इक़रार वाले  लोग  अब  रह   गए  थोड़े || 
   
दीन-ओ-इमां से दूर अब भागते हैं लोग |
अज़कार वाले लोग  अब रह  गए  थोड़े ||    

इल्मे -उरूज़ अब शायरी में नहीं ‘सैनी’|
अशआर वाले लोग अब रह गए  थोड़े ||    

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
       

Tuesday, 20 March 2012

क्या करूँ |


बेवफ़ा  के  पास   जा  कर  क्या  करूँ |
और अब दिल को दुखा कर क्या करूँ ||

आँख  पर  पट्टी  जो  बांधे  चल  रहा |
रास्ता  उसको  बता   कर  क्या  करूँ ||

लोग अपने –अपने मन की  कर  रहे |
ग़लतियां उनकी गिना कर क्या करूँ || 

भूल   बैठा   है   जो  मेरा  नाम  तक |
बज़्म में उसको बुला कर क्या  करूँ || 

भूख    से    बेहाल   बच्चा    रो   रहा |
अब उसे लोरी  सुना  कर  क्या  करूँ || 

है   नहीं   फ़ुर्सत  उन्हें  तो  आजकल |
महफ़िलें फिर मैं सजा कर क्या करूँ || 

रूह तो दिलबर  से  मिलने  जा  चुकी |
फूल   मुर्दे   पर  चढ़ा  कर  क्या  करूँ || 

बेसुरों   के   बीच   में  जब  फंस   गया |
मैं ही सुर में  गुनगुना  कर  क्या  करूँ || 

कुछ तवज़्जोह  आप  जब   देते   नहीं |
बात  को  मैं  भी  बढ़ा  कर  क्या  करूँ || 

ज़हर मिल कर  बिक रहा हर चीज़ में |
अब अलग से ज़हर खा कर क्या करूँ ||  

देख    कर   नादान   की    नादानियां |
बेवजह मैं  तिलमिला कर  क्या करूँ ||  

ज़िंदगी  भर   तो  नहीं  मै   को चखा |
आज ही  मुंह से लगा कर क्या  करूँ ||  

भैंस     नाचेगी    नहीं   ‘सैनी’   तेरी |
बीन फिर यूँ ही बजा कर क्या  करूँ ||  

डा० सुरेन्द्र  सैनी