Thursday, 20 September 2012

जब तुम्हे चाहा


जब तुम्हे चाहा तुम मिले ही नहीं |
अब मिले भी तो हम रहे ही  नहीं ||

तीन  पल   की    हयात   पाई  थी |
क्या करूँ तुम तो बस रुके ही नहीं ||

उन  गुनाहों   का   ख़ाब  क्या  देखें |
हमने जीवन में जो किये  ही  नहीं ||

हारना  क्या  था जीतना क्या  था |
फ़ैसले  प्यार   में   हुए   ही  नहीं ||

आग  क्या  है  न  मैंने  जाना  है |
हाथ   तेरे  कभी   छुए   ही  नहीं ||

पर्चियां  फाड़ता  रहा   लिख  कर |
ख़त के जुमले कभी बने ही नहीं ||

तुम थे बगिया में फूल खिलते थे |
तुम गए फूल भी खिले  ही  नहीं ||

साथ चलना था  मंज़िलों पे हमें |
ये  अकेले   क़दम  बढे  ही नहीं ||

तेरे  बारे  में  जब  भी  सोचा  है |
जाम‘सैनी’ ने तब पिए ही नहीं ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   


Tuesday, 18 September 2012

ज़ह्र कर डाला


सारे   पानी   को   ज़ह्र   कर   डाला |
और    बदहाल    शह्र   कर    डाला ||

वक़्त भी क्या-क्या गुल खिलाता है |
एक    क़तरे   को   बह्र   कर  डाला ||

तैरने     का    गुमान   था   इतना |
ख़ुद   को   ही  ज़ेरे -लह्र कर डाला ||

जाने उस  शख़्स में था क्या जादू  |
उसने   मुठ्ठी   में  दह्र  कर डाला ||

ख़ाब  में  छू  लिया  किसी ने उसे |
उसने बस्ती  पे  क़ह्र  कर   डाला ||

जिसने बांटा  मिठास  दुन्या  को |
पेश  उसको  ही  ज़ह्र  कर  डाला ||

‘सैनी ’की क्यूँ तमाम ग़ज़लों को |
आज  मसला -ए -बह्र कर  डाला ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 10 September 2012

इश्क़ का जल्वा


लुभाओ  मत  मुझे  यूँ   फ़ासले   से   ही   निगाहों  से |
कराओ मुझको भी वाक़िफ़ क़रीब आ कर अदाओं से ||

गुनाहों   से   बचा   कर  रक्खी मैंने  ज़िन्दगी  अपनी |
तुम्हें  छू  कर  लिपटना   चाहता  हूँ  अब  गुनाहों  से ||

छुपा  कर  ख़ुद  को  ले जाते हो मुझसे होशियारी से |
मगर  ख़ुशबू  बचा  पाते  नहीं  हो  तुम  हवाओं   से ||

जफ़ाएं  हुस्न  का  होती  हैं  गहना  बात  सच्ची  है |
उसे  लेना  या  देना  कुछ  नहीं   होता  वफ़ाओं  से ||

समझती हो अगर तुम राजरानी हुस्न की ख़ुद को |
तो  हम  भी  इश्क  के  कमतर  नहीं हैं बादशाहों  ||

जवानी  में  कुलाँचे   भर  रहा जब इश्क़  होता है |
हमेशा   ख़ार   खाता   है  बुजुर्गों  की  सलाहों  से ||

कभी देखा नहीं ‘सैनी'  ने  कोई इश्क़ का  जल्वा |
नहीं फ़ुर्सत कभी मिलती है उसको पारसाओं से ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी     

Friday, 7 September 2012

हुस्न का नशा


क्या उठा उनके दिल में फ़ुतूर  |
मुझ   से   रहने   लगे  दूर -दूर ||

आदमी   मैं    बुरा   ही   सहीअ |
काम  आऊँगा इक दिन ज़ुरूर  ||

बैठ बज़्म -ए -अदब में तू रोज़ |
आ ही जाएगा इक दिन शऊर ||

सच्ची सूरत जो कर दी  बयाँ |
आइने  को   किया   चूर -चूर ||

मुझ से शायद  कोई  काम  है |
आज  घर   मेरे   आये  हुजूर ||

 दौलत -ए -हुस्न का है  नशा |
आ  गया  थोड़ा उन में  ग़ुरूर ||

आप  ‘सैनी  ’की  ग़ज़लें पढ़ें |
कईं  दिनों  तक रहेगा सुरूर ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 3 September 2012

कभी सोचा नहीं था ये


मुझे  वो  भूल  जाएगा  कभी  सोचा  नहीं    था  ये |
ख़यालों   में   सताएगा  कभी  सोचा   नहीं  था  ये || 

मेरी  रातों  की  नींदे  और  ये  सुख  -चैन  सारा  ही |
वो   लेकर  साथ  जाएगा कभी  सोचा  नहीं  था  ये || 

हमारे  मुल्क  में  इस  बार  ये  बरसात  का मौसम |
तबाही   लेके   आयेगा  कभी   सोचा   नहीं  था   ये || 

जिसे हमने कभी छोड़ा था बिल्कुल अधमरा करके |
वो  दुश्मन  सर  उठाएगा कभी  सोचा  नहीं  था  ये || 

समझ कर अपना मैंने जो कही दो -चार  बातों का |
बतंगड़  वो  बनाएगा  कभी   सोचा    नहीं   था  ये || 

पिलाया दूध जिसको अपने बच्चों की तरह हमने |
हमें  वो  काट  खायेगा  कभी   सोचा  नहीं  था  ये || 

हमेशा   याद  आते  हैं वो बचपन के सुनहरे दिन |
सभी  कुछ  छूट  जाएगा  कभी सोचा नहीं था ये || 

लगी  है   नौकरी  बेटे  ने  तबसे   आँख  फेरी  है |
हमें  ये  दिन  दिखाएगा  कभी  सोचा नहीं था ये || 

कभी  इक  राज़ खोला था जो मैंने सामने उसके |
वो ‘सैनी ' को बताएगा  कभी  सोचा  नहीं था ये || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी